सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को राज्य विधानसभा से पास हुए बिलों की मंजूरी देने के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने राष्ट्रपति के अनुच्छेद 143 के तहत पूछे गए सवालों पर यह राय दी। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि बिल मंजूरी प्रक्रिया में राष्ट्रपति और राज्यपाल का निर्णय संवैधानिक कर्तव्य है और न्यायपालिका समय सीमा नहीं तय कर सकती।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गवर्नरों के पास तीन विकल्प हैं बिल को मंजूरी देना, विधानसभा को दोबारा विचार के लिए लौटाना या राष्ट्रपति को भेजना। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि अत्यधिक देरी लोकतांत्रिक शासन के लिए हानिकारक है, इसलिए पदाधिकारी उचित समय में निर्णय लें।
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यह मामला तमिलनाडु में राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच विवाद से उठा था। सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कहा था कि राज्यपाल के पास बिल रोकने की पूर्ण शक्ति नहीं है और राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि डीम्ड असेंट (बिना जवाब के हां मान लेना) का प्रावधान न्यायालय लागू नहीं कर सकता। लंबे समय तक अनिश्चित देरी होने पर ही कोर्ट सीमित दिशा-निर्देश जारी कर सकता है, लेकिन पूरी तरह हस्तक्षेप नहीं कर सकता। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल रबर स्टैंप नहीं हैं, और उनके निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए।